माटी रे माटी--------------
भुनेश्वर भास्कर कला लेखक एवं कलाकार
मो. 9830181461
दिल्ली
तालाब, पोखरा, अहरा या किसी नदी के किनारे गीली मिट्टी में पैर फंस जाने या पांव में लगी मिट्टी को झुंझलाकर हाथों से हटाने के क्रम में कुछ मिट्टी हथेली में अंगुलियों से दब गयी होगी। बार-बार दबने के कारण मिट्टी एक अनगढ़ आकार में आ गयी होगी। तब उसने उस लोंदे को अपने से दूर फेंक दिया होगा। संभव है कि फेंकी हुई मिट्टी जमीन पर गिरने के पाश्चात एक रूपाकार ग्रहण कर ली होगी। ऐसे में उसे तनिक शुकून भी मिला होगा। लेकिन उसके हाथों मिट्टी-मूर्ति का सृजन हो गया है, ऐसी ही परिस्थितियों में कला की नयी दुनिया जन्म लेती है, मूर्तियों का सृजन संभव हो पाता है, उपयोगी वस्तुए बन जाती है। यह सब उसके समझ से परे रही होगी। आहिस्ता आहिस्ता चेतना विकसित होगी गयी। मिट्टी के साथ लगाव बढ़ता गया। कभी मिट्टी के साथ खेल कर तो कभी शरीर में धूल रगड़कर हम मिट्टी की महता को समझने लगे। हमारा संवेदनात्मक लगाव बढ़ता गया। ऐसे में घरेलू उपयोगी वस्तुएं भी बनने लगीं। चूल्हा, कोठिला, नरिया, खपड़ा एवं मिट्टी के खिलौने भी सृजित होने लगे। समय-अंतराल के बाद मिट्टी-मूर्तियों के माध्यम से हम आस्थावान तो हुए ही अपनी भावनाओं एवं विचारों को अभिव्यक्त भी करने लगे। कला का वृहद फलक मिल गया। मूर्ति-रचना-यात्रा के दौरान जो वस्तुएं निर्मित हुई हैं, उसमें हमारे पुरखों की संवेदनात्मक परम्परा दृष्टिगत होती है जिसके माध्यम से हम उन परम्पराओं की सोंधी गंध एवं मिट्टी की महक को महसूस कर सकते हैं। खेल-खेल में गीली मिट्टी को हथेली पर रखकर बार बार हथेलियों को गोल गोल घुमाने या हथेलियों को रगड़ने के बाद मिट्टी गोलाकार रूप में तब्दील हो जाती है। उस गोलाकार मिट्टी से आकृतियों की बनावट प्रारंभ होती है। वैसे खेलने के क्रम में पैरों पर मिट्टी रखकर हाथ या मुक्का से बार-बार चोट देकर एक आकार देने की शुरूआत बचपन में ही हो जाती है। यँू कहें तो मिट्टी के संग हम इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि हम उससे अलग होकर सोच नहीं पाते। मिट्टी का महत्व जीवन में बहुत ज्यादा है। अगर हम कहें कि मिट्टी के वगैर जीवन संभव नहीं है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था के लिए मिट्टी या मिट्टी द्वारा निर्मित वस्तुओं की उपस्थिति हो जाती है। प्रारंभिक दौर में मिट्टी का कार्य या मिट्टी की वस्तुएं जिन रचनाकारों ने सृजित किया उसे खास जाति विशेष से संबोधित किया गया। तब से आज तक उनके हाथों कई तरह की उपयोगी वस्तुएं एवं मूर्तियां सृजित होती रही हैं। वंशानुगत रूप से यह विधा चलती रही। गीली मिट्टी से वस्तुएं बनाने के लिए विकसित मस्तिष्क ने चाक का प्रयोग तो किया ही उसे टिकाऊ बनाने हेतु उसे पकाने के लिए आग एवं आकर्षक बनाने के लिए रंगों का प्रयोग भी किया। हमारे समाज में जातीय कला परम्परा के रूप में यह कार्य जारी है। आंचलिक परिवेश में मिट्टी का जो शिल्प सदियों से पनपता आ रहा है उसके कुछ अंश ने राज्यांे में अपनी पहचान बनायी है। अब इस जाति के लोग मिट्टी के घड़े या गमला ही नहीं बनाते वरन उनके हाथों खूबशूरत शिल्प भी बनते हैं। वर्तमान समय में देवी-देवताओं तथा समाजिक विषय वस्तुओं पर इस जाति के कलाकार मूर्तियां बनाने लगे हैं जिसमें उनकी गंभीर कल्पनाशीलता दृष्टिगत होती है। उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, उद्योग विभाग, बिहार सरकार, पटना द्वारा ‘मूर्तिकार महोत्सव’ का आयोजन किया गया। यह आयोजन कई मायने में उल्लेखनीय है। सबसे पहले मूर्तिकारों की भागदारी जिस रूप में हुई है वह विवरणीय है - कुछ कलाकार ऐसे हैं जो जातीय कलाकार ( पारंपरिक कलाकार ) हैं। सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी से खेलने एवं सृजन करने में माहिर हैं। मिट्टी के साथ सोना, मिट्टी के साथ जागना उनकी दिनचर्या हैं। कुछ कलाकार ऐसे हैं जो इस परिवार से आते हैं, वंशानुगत रूप से सारा कार्य भी करते हैं लेकिन कला की विधिवत शिक्षा के बाद स्वतंत्र रूप से भारतीय समकालीन मूर्तिकला के क्षेत्र में अपनी पहचान बनायी है तथा बना रहे हैं। कुछ कलाकार ऐसे हैं जो विभिन्न जाति परिवारों से है। उनके भीतर कला की बुनियादी चीजें थी और वे कला की शिक्षा प्राप्त कर, साधना कर, अपनी भावनाओं को मूर्ति शिल्प के माध्यम से प्रस्तुत करते रहे हैं। सबका एक साथ मिलना, रचना करना, बातें करना, एक अलग अनुभूति का अहसास कराता है। संस्थान के हाते में प्रवेश करने के साथ ही कहीं सूखी मिट्टी में पानी डालकर उसे गीला किया जा रहा है, कहीं पैरों से मिट्टी को कचटा जा रहा है, कहीं मिट्टी के लोंदे तैयार हो रहे हैं, कहीं चाक चलाया जा रहा है, चाक के माध्यम से अपनी-अपनी कल्पनाशीलता के अनुरूप शिल्पों का सृजन किया जा रहा है। पूरे हाते तथा अगल-बगल में गीली मिट्टी की खुशबू हमें मोहित कर लेती है। खुशबू का अहसास हम ऐसे कर रहे हैं जैसे भीषण गर्मी के बाद अचानक बारिश की बूंदे जब सूखी धरती पर पड़ती है तो पूरा बधार मिट्टी की गंध से गंधमय हो जाता है। मिट्टी एक है, चाक भी एक है, चाक का डंडा तथा गमला आदि में रखा पानी एवं सूत भी एक है लेकिन मूर्ति शिल्प अनेक हैं। अपने हाथों में मूर्तिकार जब मिट्टी लेकर चाक पर रखता है और डंडा के सहारे चाक को चलाता है तत्समय ही उसकी अंगुलियां उसके मन और मस्तिष्क के अनुरूप घूम जाती हैं। देखते ही देखते उसकी रचना अलग हो जाती है। उसके बाद शिल्प को थोड़ी धूप या कही छांव में सूखने के लिए रख देते हैं। इस तरह कई मूर्तियां सुखायी जा रही है, यूं कहें तो जितनी मस्तिष्क उतनी मूत्र्तियां। चाक से उतरने तथा हल्की सूखने के पश्चात किसी नुकीले औजार या थपुआ से शिल्प को कुरेद कुरेद कर या ठोक ठोक कर मनचाहा रूप प्रदान किया जा रहा है। उस दौरान कलाकार अपनी सौंदर्य दृष्टि एवं कल्पनाशीलता का भरपूर प्रयोग करता है। कांची या हल्की सूखी मिट्टी में ही जितना सृजन करना है, उसे कर देता है। क्योंकि शिल्प को सूखने के बाद आग या भðी में पकाना भी होता है। मूर्ति पकने के बाद उसमें कोई बदलाव संभव नहीं हो पाता है। इस प्रक्रिया को देखते एवं समझते हुए कबीर ने भी कहा है - पका कलस कुम्हार का, बहुरि न चढ़ई चाक। कुछ समय बितते बितते वहां जितने कलाकार हैं सभी अपनी अपनी मूर्ति को लेकर भðी के पास पहुंच गये। सबकी मूतियां एक साथ भðी में पकायी गयी। पकने के बाद राख से जब मूर्तियां निकलती है तब अपनी अपनी मूर्ति को देखने के क्रम में कलाकार कितना आनंदित होता है, चेहरे की चिंतित रेखाएं खुशी की रेखाओं में कैसे तबदील होती है, इसे कलाकारों के चेहरे पर देखा जा सकता है। आग के तापमान के कारण किसी किसी मूर्ति में थोड़ी झांयी आ जाती है अर्थात थोड़ी काली हो जाती है। मूर्तियों के पके या तपे हुए रंग काफी मनमोहक होते हैं। सभी मूर्तिकार अपनी - अपनी मूर्ति लेकर आनंदित हैं। वाकई वहां का पूरा माहौल सृजनोत्सव का हो गया है। रचना प्रक्रिया से गुजरने एवं प्रस्रव पीड़ा सहने के पश्चात कलाकारों की गर्भस्थ मूतियां अब उनके समक्ष हैं जिसके साथ शनैः शनैः उनकी संवेदना जुड़ चुकी होती हैं। मिट्टी के लोंदे से सृजित आकृतियां विभिन्न समय एवं समाज की स्थितियों से रू ब रू कराती है। उल्लेखनीय है कि महाभारत काल में एकलब्य ने द्रोणाचार्य की आकृति गढ़ कर गहरी आस्था के साथ उनसे विद्या हासिल की थी। यहां जितनी आस्था की बात है, उतना ही मूर्ति के सृजन पक्ष से भी संबंधित है। यह मूर्ति की आदिम परम्परा को संबोधित करता है। आस्था की बात करें तो आज भी लोक जन-जीवन में मिट्टी के छोटे-छोटे गोले या मिट्टी का चैरा बनाकर लोग हृदय से उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। भले ही वह मिट्टी का एक लोंदा रूप हो लेकिन उसके आकार एवं बनावट के जरिये आँखे बंद करके धीरे धीरे निराकार की ओर बढ़ते हुए आस्थावान व्यक्ति के कल्पित रूप का स्मरण करतें हैं एवं सुख शांति की अपेक्षा रखते हैं। यहां कई कलाकृतियां देवी देवताओं या उनकी किस्सा कहानी से संबंधित रूपों की है जिसमें यथार्थ एवं अर्द्धमूर्ताकार शैली दृष्टिगत होती है। किसी किसी आकृति की बनावट त्रिआयामी तथा राउंड शैली में भी है। आस्था एवं धार्मिक विषयों से संबंधित कार्य करने वाले वो कलाकार हैं जो अपनी परम्परा और रीति-रिवाजों के साथ चलना चाहते हैं। उनकी कृतियां बरबस हमें किसी ऐसे स्थल की रूप रेखा तैयार करती हैं जहां हम नतमस्तक होकर शुकून महसूस करते हैं। इसके अलावा कई ऐसी कलाकृतियां है जो विश्वास के बिम्बों को रेखांकित करती हैं। संबंधों की महता एवं जीवन मूल्यों की बातें करती हैं। खेत मे श्रम करती हुई औरत अपने छोटे से बच्चे की देख रेख नहीं कर पा रही है। बच्चा रोता रहता है। कभी सूखे स्तन से दूध पीलाकर थोड़ी देर के लिए चुप करा देती है, लेकिन उसे खेला नही पा रही है। लोरी नहीं सुना रही है, दुलार प्यार नहीं दे पा रही है। ऐसे में बच्चा बिलख उठता है। तब वह औरत अगल बगल की मिट्टी को लेकर कुछ गोली और कुछ अगढ़ खिलौने बनादेती है और तात्कालिक रूप से उसके हाथों में पकड़ा देती है। वह बच्चा खेलने लगता है। ऐसी ही स्थिति में मिट्टी के खिलौने भी बनें होंगे। बाद में कई तरह के मिट्टी से खिलौने निर्मित होने लगे। इसका महत्व बच्चों में काफी रहा है। प्रथम ई.पू. शुद्रक ने जब नाटक लिखा तो उसका नाम रखा ‘मृच्छकटिकम’ जिसकी हिन्दी ‘माटी की गाड़ी’ होती है। यहां कई तरह के खिलौनों के साथ-साथ हाथी, घोड़ा, गाय आदि पशुओं का सृजन भी हुआ है। बड़ी सी मिट्टी की हाथी को देखने के बाद हमें शादी की रश्मों की याद ताजा हो जाती है। विदित हो कि बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में जब लड़की की शादी होती है तो कलश, दीप, चुक्का के साथ ही मिट्टी की हाथी अवश्य आती है जिसे आंगन-स्थित मंडप में रखा जाता है। हरीश के साथ ही उसकी भी पूजा-अर्चना होती है। ऐसी कलाकृतियां पूरी तरह से सकारात्मक परम्पराओं को रेखांकित करती है जिसकी जरूरत हर व्यक्ति, हर परिवार को है। इसके माध्यम से सकारात्मक जीवन को बल मिलता है। वही दूसरी तरफ कुछ कलाकृतियों के माध्यम से टूटते बिखरते परिवार एवं समाज को भी रेखांकित किया गया है। आज व्यक्तिवादी संस्कृति में लोग अलग-अलग होते जा रहे हैं। सामूहिक परिवार के बदले एकल परिवार पनपते जा रहे हैं। ऐसे में बच्चे एवं बुजुर्गों के अकेलेपन एवं उनकी स्थितियों को बयां करती कई मूर्तियां चक्षुप्रिय बन पायी हैं। आज की बाजारवादी संस्कृति एवं शहरों महानगरों में भागदौड़ की जिंदगी में सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया है। लोग बाजार की चकाचैंध को देखकर उसके पीछे भागते जा रहे हैं। अपनी जमीन छूटती जा रही है। हमारे छोटे-छोटे कस्बे तथा गांव के लोग मजबूरी बस शहरों की ओर पलायन करते जा रहे हैं। दो जून की रोटी का सपना लिए सड़क दर सड़क ठोकरें खाने पर मजबूर हैं। काम करवाने एवं मेहनताना कम देने का प्रचलन हो गया है। ऐसे मे उनके सपने तो टूट ही रहे हैं, उनकी पहचान की समस्या भी बनी हुई है। उनके संघर्षो एवं सपनों की यात्रा चलती रहती है। आए दिन मजदूरों, महिलाओं एवं बच्चों की प्रताड़ना एवं पीड़ा की बातें सुनाई देती रहती हैं। ऐसे संवेदनशील विषय कलाकारों के मन मस्तिष्क को करीब से कुरेदते हैं और बरबस वे अपनी कलाकृतियों में ऐसे विषयों को प्रस्तुत करतें हैं। आयोजन में कई ऐसी कलाकृतियां हैं जो अनेकों सवाल हमसे करती हैं। हम सोचने पर विवश हो जाते हैं। छोटी बच्ची, बुजुर्ग महिला एवं कुछ मानवाकृतियों के संयोजन कृति के माध्यम से हम महसूस कर पाते हैं। बदलते समय और समाज में राजनैतिक उथल पुथल एवं उसकी भूमिका को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं। आज हर राजनैतिक चेहरा कई-कई चरित्रों-पात्रों के साथ जी रहा है। जब जैसा तब वैसा भाव एवं चेहरे का निर्माण कर अपना दबदबा बनाए रखता है। ऐसे में उन चेहरों को पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। अगर बाहर से पहचान भी लिया तो अंदर से खोखला सा बन बैठा है। कई कलाकृतियां राजनैतिक उथल पुथल एवं उसकी महत्ता को प्रस्तुत करती हैं। ऐसे में आम आदमी, आम आवाम का जीवन कठिन होता जा रहा है। कठपुतली की तरह सिर्फ उनका इस्तेमाल हो रहा है। उनका निजी जीवन बद से बदतर होता जा रहा है। आज भोजन के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक सुरक्षा की जरूरत भी काफी है। कुछ कलाकृतियां हुंकार कर रहीं हैं। उनके अंदर का प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है। पंूछती हैं कि हम कहां है? हमारी अस्मिता क्या है? पर हम मौन हैं। सिर्फ दर्शक हैं। चुप हैं। जैसे-जैसे माटी के मूरत के करीब होते हैं वैसे-वैसे हम संवेदनशील होते जा रहे हैं। भले ही फाॅर्म एवं बनावट के कारण एकाएक नहीं जुड़तें लेकिन तनिक ठहर के जब चारो तरफ से अवलोकन करते हैं तो महसूस होता है कि मिट्टी की वे मोटी परतें धीरे-धीरे वास्ताविक रूप-रेखा एवं चमड़े के शरीर में तब्दील होती जा रही हैं। जीवंतता दृष्टिगत होती है। हम उनकी कथा-व्यथा को सुनते देखते प्रभावित होते जा रहे हैं। यहां कलाकार या मूर्तिकार का चिंतन एवं सौंदर्य दृष्टि काफी उत्कृष्ट है। महोत्सव में बिहार के लगभग हर क्षेत्र से कलाकारों ने अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज की है। गौर करने वाली बात है कि बिहार में कई-बोली-भाषाएं बोली जाती हैं। खान-पान एवं रहन-सहन में भी भिन्नता है। कहतें हैं कि दो योजन पर पानी बदले, चार योजन पर वाणी। इसी तरह भौगोलिकता के अनुसार सारी चीजें बदलती चली जाती हैं। इतनी विविधता के बावजूद कलाकारों ने जब सृजन किया है तो उसमें उनकी आंचलिक एवं क्षेत्रीय परिवेश एवं स्थितियों में भिन्नता दिखती हैं। लेकिन सबसे ऊपर सबसे अलग सबकी भाषा एक है, वह है कला की। अभिव्यक्ति को, वाकई कला या कलाकृति को किसी भाषा-समुदाय की जरूरत नहीं होती। उसे किसी सीमा के अंदर नहीं बांधा जा सकता। उसे भोजपुर में उतना ही समझा जा सकता है जितना मधुबनी और भागलपुर में। चाहे हम भोजपुरी बोलते हों, मैथिली बोलते हों, अंगिका बोलते हों, बज्जिका बोलते हों या मगही बोलते हों। इन सबसे अलग कला की भाषा को महसूस करते हैं। जो सर्वभोग्य है। मिट्टी, कुम्हार, चाक एवं मूर्ति को केन्द्र में रखकर अनेकों दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों तथा विद्वानों ने अलग-अलग समय में अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में बातें की हैं। बहुत सारे संदर्भ बनते रहे हैं। लोक जीवन से लेकर शहरी जीवन तक में मिट्टी से संबंधित बातें होती रही हैं जिसे गिना पाना संभव नहीं है। कही मिट्टी की बातें होती हैं तो कहीें कुम्हार या मूर्तिकार की। आदिम संस्कृति से फिलवक्त तक मिट्टी जन जीवन से जुड़ी हुई है। इसकी यात्रा या इसके रूप को देखने समझने के लिए जब हम मिट्टी को कुरेदते हैं तो धीरे-धीरे परत दर परत.... गहरे और गहरे..... पाताललोक के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। एक अंतहीन खोज जारी रहती है। लगातार... निरंतर... खोज के बाद महसूस होता है.... माटी रे माटी तेरी अविवरणीय कहानी.. माटी रे माटी.....।
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